अब बच्चों को होने लगी है बड़ों की बीमारी
14 Nov 2008, 0502 hrs IST,नवभारत टाइम्स
नीतू सिंह
नई दिल्ली : पहले बड़ों की बीमारी मानी जाने वाली टाइप- 2 डायबीटीज अब बच्चों को भी होने लगी है। आमतौर पर टाइप- 2 डायबीटीज का खतरा 40 की उम्र के बाद माना जाता है, लेकिन अब 13 साल की उम्र से ही इसके लक्षण दिखने लगे हैं। 15 - 16 की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते तो समस्या बड़ी बीमारी का रूप ले लेती है। चिंताजनक बात यह है कि इससे सिर्फ हेल्थ ही नहीं बल्कि लुक भी प्रभावित हो रहा है।
हार्ट केयर फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. के. के. अग्रवाल का कहना है कि फिलहाल बच्चों में डायबीटीज की समस्या कितनी बड़ी है? यह पता करने के लिए बड़े लेवल पर स्टडी नहीं हो पाई है, मगर वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन जैसी एजंसियों के अनुमान के मुताबिक फिलहाल शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 33 से 37 फीसदी स्कूली बच्चे मोटापे के शिकार हैं। इनमें से 10 फीसदी से ज्यादा डायबीटीज की चपेट में आ चुके हैं और लगभग इतने ही प्री-डायबिटिक स्टेज में हैं। डॉ. अग्रवाल के मुताबिक गलत जीवनशैली या पारिवारिक इतिहास के चलते होने वाला टाइप-2 डायबीटीज का असर लड़कों की तुलना में लड़कियों में डेढ़ फीसदी ज्यादा हो रहा है। इसके कारण लड़कियों के पीरियड्स में अनियमितता या मूछें उगने जैसी दिक्कतें हो रही हैं। इससे कई तरह की फिजिकल और साइकलॉजिकल समस्याएं भी पैदा हो रही हैं।
दिल्ली डायबिटिक रिसर्च सेंटर के अध्यक्ष डॉ. ए. के. झिंगन के मुताबिक, कम उम्र में टाइप-2 डायबीटीज होने के कारण मोटापा और इंसुलिन से संबंधित समस्याएं आम हैं। इसके कारण कम उम्र में ही हार्ट, किडनी और लीवर की बीमारियों का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. आर. एन. कालरा का कहना है कि इस तरह की दिक्कतों से बचाव के लिए बच्चों में शुरू से ही चीनी, चावल, मैदा जैसी चीजों से परहेज रखने और देर रात तक न जागने की आदत डालें। साथ ही उन्हें फिजिकल एक्सरसाइज के लिए भी भेजें।
डायबीटीज ने बढ़ाया आंखों के लिए भी खतरा
डायबीटीज आंखों की रोशनी के लिए भी सबसे बड़ा खतरा बन गया है। इसके कारण डाबिटिक रेटिनोपैथी नाम की बीमारी हो जाती है। ऐसा कहना है सेंटर फॉर साइट के डायरेक्टर डॉ. महिपाल सचदेव का। उन्होंने बताया कि डायबिटिक रेटिनोपैथी में रेटिना की ब्लड वेसेल्स कमजोर हो जाती हैं और इनसे खून निकलने लगता है। इससे नसें सूज सकती हैं।
इस तरह के बदलावों से रेटिना के अंदर ब्लड का संचार सामान्य नहीं रहता और आंखों को ऑक्सिजन और अन्य न्यूट्रिएंट नहीं मिल पाते। श्रेया आई सेंटर के अध्यक्ष डॉ. राकेश गुप्ता कहते हैं कि जैसे-जैसे यह बीमारी बढ़ती है वैसे-वैसे आंखों की रोशनी कम होती जाती है। ऐसे में शुरू से बचाव और समय पर आंखों की जांच बहुत जरूरी है।
By 14 Nov 2008, 0502 hrs IST,नवभारत टाइम्स
नीतू सिंह
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